'मंदिर में देवदासी बनी, मजबूरी ने सेक्स वर्कर बनाया':महिलाएं बोलीं- बच्चों को पिता का नाम नहीं मिला, रोज शर्मिंदा होते हैं
मेरी मां और नानी देवदासी थीं। मुझे भी इसमें धकेल दिया। परिवार संभालने के नाम पर सेक्स वर्कर बन गई। इस बीच दो बच्चे हो गए। दोनों स्कूल जाते हैं। वहां लोग उनसे पिता का नाम पूछते हैं। उनको बहुत शर्मिंदगी होती है। यह कहानी कर्नाटक में 41 साल की शोबा मथाड और उन जैसी 46 हजार से ज्यादा महिलाओं की है, जिन्हें भगवान की कथित सेवा के नाम पर मंदिरों में देवदासी बना दिया गया था। इसके बाद वे यौन शोषण और प्रताड़ना का शिकार हुईं। कर्नाटक में 1982 में लड़कियों को देवदासी बनाने की प्रथा के खिलाफ कानून लाया गया। तब से सरकारें दावा करती आई हैं कि यह प्रथा बंद हो गई है। हालांकि, चोरी-छिपे लड़कियां आज भी इस दलदल में धकेली जाती हैं। लड़कियों को अब उनका परिवार देवदासी बनाने के बाद देह व्यापार के लिए दूसरे राज्यों में भेज देता है। दैनिक भास्कर ने इस प्रथा की जमीनी हकीकत समझने के लिए 8 दिन तक बगलकोटे, बेलगावी, धारवाड़, विजयनगर और कोप्पल जिलों का दौरा किया। इस दौरान देवदासियाें, उनके परिवारों से बात कर पूरा मामला समझने की कोशिश की। पढ़िए यह ग्राउंड रिपोर्ट। दैनिक भास्कर ने बेलगावी जिले के हल्लूर गांव में मनोहर से बात की। उन्होंने अपनी बेटी सपना को देवदासी बनाने के बाद महाराष्ट्र में देह व्यापार के लिए भेज दिया है। नेहा नाम की एक दूसरी युवती ने बताया कि उसकी कहानी भी मिलती-जुलती है। ये अपनी पहचान नहीं बताना चाहते हैं, इसलिए हमने इनके नाम बदल दिए हैं। दो देवदासियों की कहानी, जो महाराष्ट्र में सेक्स वर्कर हैं... 1. सपना की कहानी : 5 बहनों को पिता पाल नहीं सके, एक को महाराष्ट्र भेजा मनोहर ने बताया कि उनकी 5 बेटियां हैं। सपना सबसे बड़ी है। इसलिए उसे देवदासी बना दिया। वह कहते हैं, 'यह सब भगवान की इच्छा से होता है। उन्होंने ही 5-5 बेटियां दे दीं। एक बेटा नहीं दिया। मैं और मेरी पत्नी खेत में मजदूरी करते हैं। उस कमाई से 7 लोगों का परिवार चलाना बहुत मुश्किल था। बेटियों को पढ़ाना-लिखाना तो दूर की बात है।' 'मेरी चाची और बहनें देवदासी बनने के बाद दूसरे राज्यों में सेक्स वर्कर हैं। अच्छे पैसे कमाती हैं। इसलिए जब हमारी बड़ी बेटी थोड़ी बड़ी हुई, तो उसे मंदिर ले गए। वहां देवदासी बनाने के बाद उसे महाराष्ट्र भेज दिया। अब वह भी पैसे कमाकर हमें भेजती है। उसी से परिवार चलता है।' 2. नेहा की कहानी : मन होता है यह काम छोड़कर भाग जाऊं, लेकिन परिवार मेरे भरोसे कर्नाटक के बागलकोट जिले के रबकावी-बनहट्टी शहर की नेहा महाराष्ट्र के सांगली में सेक्स वर्कर हैं। वह बताती हैं, 'हम 3 बहनें और एक भाई हैं। मैं सबसे बड़ी हूं। नाबालिग थी, तभी घरवालों ने देवदासी बना दिया। माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं हैं। दिहाड़ी करके हम चारों भाई-बहन को पालते थे।' 'मम्मी-पापा ने कहा कि मेरे देवदासी बनने से उनकी जिंदगी आसान हो जाएगी। इसलिए मैं भी मान गई, लेकिन सेक्स वर्कर बनने के बाद मेरी जिंदगी बहुत मुश्किल हो गई है। बहुत बार मन होता है कि कहीं भाग जाऊं, लेकिन घरवालों का चेहरा याद आ जाता है। उनकी उम्मीद तोड़ने की हिम्मत नहीं होती। मेरे कमाए पैसों से ही मेरे भाई-बहनों का भविष्य सुधर सकता है। अब शोबा और उनके जैसी पूर्व देवदासियों की कहानी... 'डॉक्टरों ने इलाज नहीं किया, सबको लगता था मुझे HIV होगा' शोबा मथाड कोप्पल जिले के हिरेसिंदोगी गांव में रहती हैं। वह बताती हैं, 'मेरे परिवार में लड़कियों को देवदासी बनाने की परंपरा थी। मेरी नानी देवदासी थी। मां विकलांग थी, इसलिए नानी ने उन्हें देवदासी बना दिया था।' 'मैं दोनों का इकलौता सहारा थी। इसलिए मुझे भी कम उम्र में सेक्स वर्कर बना दिया। देवदासी बनने के बाद मुझे एक लड़का पसंद आ गया। वह दूसरी जाति का था। हम दोनों शादी करना चाहते थे, लेकिन उसके घरवालों ने मुझे अपनाने से इनकार कर दिया।' 'फिर मैं प्रेग्नेंट हो गई। अबॉर्शन करवाने के लिए कई अस्पतालों में गई, लेकिन किसी डॉक्टर ने मेरा इलाज नहीं किया। सबको लगता था मुझे HIV होगा। उस दिन मैंने फैसला किया कि अपनी गलतियों की सजा अपने बच्चे को नहीं दूंगी। मैंने बच्चे को जन्म दिया। बाद में एक बेटी भी हुई।' शोबा बताती हैं, 'मैंने सोचा था यह काम छोड़ने के बाद समाज में सिर उठाकर जिएंगे, लेकिन हमारे माथे पर लगा कलंक शायद कभी नहीं हटेगा। मेरा बेटा 12वीं और बेटी 8वीं में पढ़ती है। स्कूल में जब वह सिर्फ मां का नाम बताते हैं, तो उनसे जानबूझकर पिता का नाम पूछा जाता है। इससे उन्हें बहुत शर्मिंदा होना पड़ता है।' 'जब तक देह व्यापार छोड़ा, 3 बच्चों की मां बन चुकी थी' बेलगावी जिले के मुदाल्गी शहर की 45 साल की यशोदा गस्ती कहती हैं, 'मैं मां-बाप की इकलौती बेटी थी। पापा बहुत शराब पीते थे। घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी। मेरे 8वीं क्लास में जाते ही दादी देवदासी बनने का दबाव डालने लगीं। मुझे भी लगा पैसे कमाऊंगी तो घरवालों की देखभाल कर सकूंगी। इसलिए मैं मान गई।' 'हालांकि मुझे बहुत जल्दी एहसास हो गया था कि देवदासियों की जिंदगी कितनी बदतर होती है। जब तक ये काम छोड़ने का फैसला किया, तब तक मेरे तीन बच्चे हो चुके थे। दो बेटियां और एक बेटा है। बड़ी बेटी की शादी कर दी है। दूसरी बेटी नर्सिंग की पढ़ाई कर रही है। बेटा 10वीं में पढ़ता है।' 'मोतियों की माला, चूड़ियां पहनकर स्कूल गई, सब घूरने लगे' बागलकोट जिले की रेणुका गाडी (50 साल) और मधु नादुविनमणि (45 साल) को 7 से 10 साल की उम्र में देवदासी बना दिया गया था। मधु अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। वहीं, रेणुका की दादी ने उन्हें सिर्फ इसलिए देवदासी बना दिया, क्योंकि वह अपने परिवार की पहली बेटी थीं। रेणुका कहती हैं, 'मैं पहली क्लास में थी, जब मुझे देवदासी बना दिया। अगले दिन मैं स्कूल चली गई। मेरे दोनों हाथों में हरी चूड़ियां, गले में मोतियों की माला, पैरों में अंगूठियां थीं। सब बच्चे मुझे ही घूर रहे थे। 11 साल की हुई तो घरवालों ने सेक्स वर्कर बनने पर मजबूर कर दिया। दो बच्चों की मां बनने के बाद इस प्रथा स

‘मंदिर में देवदासी बनी, मजबूरी ने सेक्स वर्कर बनाया’: महिलाएं बोलीं- बच्चों को पिता का नाम नहीं मिला, रोज शर्मिंदा होते हैं
Kharchaa Pani
लेखक: सुमिता शर्मा, टीम नेटआनागरी
परिचय
भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति अक्सर कठिनाइयों और संघर्षों से भरी रही है। हाल ही में, कुछ महिलाओं ने अपनी कहानियाँ साझा कीं, जिन्होंने बताया कि कैसे मजबूरी ने उन्हें देवदासी प्रथा से लेकर सेक्स वर्किंग तक पहुँचाया। उनका कहना है कि समाज में उन्हें और उनके बच्चों को कई प्रकार की शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है।
देवदासी प्रथा का इतिहास
देवदासी प्रथा एक प्राचीन परंपरा है जिसमें लड़कियों को मंदिरों में देवी-देवताओं की सेवा के लिए समर्पित किया जाता था। हालाँकि इस प्रथा को खत्म कर दिया गया है, लेकिन आज भी इसके प्रभाव समाप्त नहीं हुए हैं। कई महिलाएं इस प्रथा के कारण यौन काम में खुद को शामिल पाती हैं।
महिलाओं की आवाज़
एक महिला ने बताया, “मेरे माता-पिता ने मुझे मंदिर में काम करने के लिए मजबूर किया। बाद में, घरेलू स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि मुझे सेक्स वर्कर बनना पड़ा।” एक अन्य महिला ने कहा, “हमारे बच्चों को पिता का नाम नहीं मिला है। वे स्कूल में आते हैं, और हम रोज शर्मिंदा होते हैं।”
समाजिक स्थिति और stigma
इन महिलाओं का कहना है कि समाज में उनका स्थान बहुत नकारात्मक है। बच्चों के लिए पिता का नाम न होना एक तरह की सामाजिक वर्जना का कारण बनता है। इससे उनकी मानसिक स्थिति भी प्रभावित होती है। उनके बच्चों को स्वयं को साबित करना पड़ता है, लेकिन यह प्रक्रिया उन्हें शर्मिदा कर देती है।
सभी के लिए एक सन्देश
इन कहानियों के माध्यम से, हम सभी को यह समझने की जरूरत है कि स्त्री की स्थिति और उनके संघर्ष को नकारा नहीं जा सकता। समाज को चाहिए कि वह इन महिलाओं की सहायता करे और उन्हें अपनी गरिमा और आत्म-सम्मान वापस दिलाने में मदद करे।
समाप्ति
इन अनुभवों ने हमें यह सिखाया है कि हमें महिलाओं के खिलाफ prejudices को मिटाने की आवश्यकता है। इसके लिए जागरूकता फैलाने के साथ-साथ उनके हकों की रक्षा करना भी जरूरी है। बदलाव तभी संभव है जब हम सभी मिलकर इन मुद्दों पर कार्य करें।
किसी भी समाज में नारी की गरिमा का आदान-प्रदान आवश्यक है। आज उनकी आवाज़ सुनने की जरूरत है। हम सभी को इनकी सहायता करनी चाहिए।
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